चित्र नही चरित्र की पूजा होनी चाहिए।

#कलमसत्यकी ✍️
किसी ने सच ही कहा है चित्र की नहीं चरित्र की पूजा होनी चाहिए। 
स्वामी विवेकानंद जी ऐसे ही युग पुरूष नही कहे जाते!
उन्हें प्रेरणापुंज कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी,शब्द बौने ही लगेंगे। 
12 जनवरी,1863 को जन्मे स्वामी विवेकानंद बाल्यावस्था  से अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के थे। 
परिवार के धामिर्क एवं आध्यात्मक वातावरण के प्रभाव से बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे पड़ गए। 
पाँच वर्ष की आयु में ही अपने विवेक से हर जानकारी की विवेचना करने लगे। यह विलक्षण बालक सदैव अपने आस-पास घटित होनेवाली घटनाओं के बारे में सोचकर स्वयं निष्कर्ष निकालता रहता था। 
युवा नरेंद्र ने श्रीरामकृष्णदेव को अपना गुरु मान लिया था। उसके बाद एक दिन उन्होंने नरेंद्र को संन्यास की दीक्षा दे दी। उसके बाद गुरु ने अपनी संपूर्ण शक्‍त‌ियाँ अपने नवसंन्यासी शिष्य स्वामी विवेकानंद को सौंप दीं, ताकि वह विश्‍व-कल्याण कर भारत का नाम गौरवान्वित कर सके। 
4 जुलाई, 1902 को यह महान तपस्वी,युग पुरूष अपनी इहलीला समाप्त कर परमात्मा में विलीन हो गये। 
इतनी कम उम्र में पूरे विश्व में सनातन संस्कृति तथा भारत की गौरवशील संस्कृति तथा परंपरा के माध्यम से पूरे विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया।
एक महान रचनाधर्मी होने के साथ-साथ स्वामी विवेकानंद जी युगपुरुष भी हैं और उनके उपदेश कालजयी भी! 
स्वामी जी की अनेक पुस्तक मुझे पढ़ने का अवसर मिला और उनकी पुस्तक कर्मयोग मेरे जीवन पर भी गहरा प्रभाव डाला ,स्वामी विवेकानंद जी ने "कर्म योग" में कर्म की एक परिभाषा कहीं और वह निश्चित रूप से आत्मसात करने वाला है....
"कर्म योग का वास्तविक तात्पर्य समझाते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं, 'अब तुमने देखा, कर्मयोग का अर्थ क्या है। उसका अर्थ है मौत के मुंह में भी बिना तर्क-वितर्क के सब की सहायता करना।
भले ही तुम लाखों बार ठगे जाओ, पर मुँह से एक बात तक न निकालो और तुम जो कुछ भले कार्य कर रहे हो, उनके सम्बन्ध में सोचो तक नहीं .....
अहा..... कितना संयम और कितना धैर्य..... नमन है आपको!!
आपके चरित्र का लेश मात्र भी,मैं, हम सब, आत्मसात कर ले तो सारी समस्या का समाधान हो जाये पर हाँ आपके चित्र को निहारना नही छोड़ सकता। 
आखिर मैं योगी नहीं हूँ न। 
नमन। नमन। 
कृत। 
सत्येंद्र शर्मा" सत्य "

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